शनिवार, जुलाई 23, 2016

गाली, नारीवाद और कुछ मुद्दे

               पिछले 3 दिन से मायावती चर्चा में हैं, राजनीतिक व्यक्तित्व अक्सर चर्चा में आते रहते हैं, लेकिन इस बार मामला उनके अपमान और उन्हें अपशब्द कहे जाने को लेकर है | बीजेपी के एक निलंबित पदाधिकारी ने उनके लिए आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग किया, और केस दर्ज होने के बाद अभी वह व्यक्ति फरार है |

          अब इसके बाद मायावती के समर्थकों नें बदले में उस व्यक्ति और उसके परिवार को तमाम तरह की गालियाँ देनी शुरू कर दी, उसकी पत्नी, बेटी, माँ और बहन के लिए अपशब्द कहे गये और भय का माहौल बना दिया गया | 

          इन परिस्थितियों के बीच असल मुद्दा यह है कि क्यूँ हर तरह के मामलों में महिलाओं को निशाना बनाया जाता है, यदि वह व्यक्ति दोषी है तो उसे सजा दिलाई जाये, पर जिस तरह महिला के अपमान के नाम पर मायावती के पक्ष के लोग उसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो क्या ये वैसा ही अपराध नहीं है, जोकि अधिक संगठित रूप से किया जा रहा है |

          शोषक वर्गअथवा असंतुष्ट वर्ग दूसरे पक्ष को नीचा दिखाने के लिए उसकी पहचान को गालियों से जोड़ देता है, हमारे समाज में भी ऐसा हुआ, जातिवादी, अश्लील, नस्लभेद, वर्गभेद से जुडी तमाम गालियाँ बनीं | कुछ गालियाँ हमें किसी जानवर से तुलना कराती मिलती हैं तो कोई व्यक्तित्वगत कमजोरी प्रदर्शित करती हैं | कुल मिलकर किसी कमतरी का एहसास कराती हैं गालियाँ |

           यहाँ अभी बात नारीवाद पर है, इन पूरी घटनाओं पर मेरा सवाल स्त्री विमर्श से जुड़े बुद्धिजीवियों से है कि क्यूँ आप सामने आकर इस घटना और प्रतिघटना पर समान रूप से आक्रोश प्रकट नहीं कर रहे हैं |

         मुझको लगता है कि इस घटना ने एक बड़ा मौका उपलब्ध कराया है कि राजनीतिक खींचतान के तानेबाने को उपेक्षित करते हुए इस पर विमर्श का माहौल तैयार कराया जाये, कि भाषा में नारियों को अपमानित करने वाली अश्लील गालियों का समाज पर क्या असर पड़ता है और कैसे इस प्रभाव को कम किया जाए |      

      पर अपने अनुभवों के आधार पर मैं यह भी देख रहा हूँ कि ये अश्लील गालियाँ हमारे परंपरागत रुढ़िवादी और साथ ही वैचारिक आधुनिक समाज में सामान रूप से चलनशील हैं | बहुत से टीवी या ऑनलाइन शोज में बहुत ही भद्दी भाषा का प्रयोग किया जाता है, पर उनका बोलने की स्वतंत्रता के नाम पर बचाव भी किया जाता है | बहुत से लोगों की बोलचाल में, चाहे वह महिला हो या पुरुष, ऐसे शब्द बड़े ही आराम से निकलते हैं |

         तो अब सवाल यह है कि इनको आपत्तिजनक स्वीकार्य किये जाने की क्या सीमा मानी जानी चाहिए | मैं कोई मोरल पोलिसिंग की बात नहीं कर रहा हूँ, सिर्फ ये समझना चाह रहा हूँ कि ऑनरिकॉर्ड ऐसी बातें आना पर इतना हल्ला हो हल्ला मच जाता है, लेकिन दिनभर ऐसी ही भाषा का प्रयोग करने वाले नारीवाद के लिए चुनौती हैं या नहीं |

रविवार, मार्च 08, 2015

महिला दिवस, न बने औपचारिकता बस

लो आ गया फिर से आठ मार्च,
गूंजेगा हर ओर महिला अधिकारों का नाद |

याद की जायेंगीं निर्भया, गुड़िया और भी कई अनजान,
साइना, टेसी, सुनीता, इन सबका होगा सम्मान |

बौद्धिक परिसरों के विशाल हॉल,
दिनभर रहेंगे वक्तव्यों से गुलजार |

होंगी तीखी बहसें, 
नारीवाद का बजेगा शंखनाद |

पर क्या किसी ने सोचा,
कब होगा नारी का असल उत्थान ?

कब स्त्रीलिंग होना,
न बनेगा शोषण का आधार |

क्या संस्कृति की दुहाई देने वाले, थामेंगें यह अनाचार,
या आधुनिकता के अंध पैरोकार, करेंगें इस पर प्रहार |

ना साहब, ऐसे न मिलेगा महिलाओ को उनका अधिकार.
करना होगा सबको, समन्वित सोच के साथ मिलजुल कर कार्य |

परिचित होना होगा संस्कृति से अपनी, रूढ़ीवाद का चोला उतार,
आधुनिकता भी अपनानी होगी, दुर्गुणों को करके साफ़ |


निर्भया के आरोपियों के वकील जैसे, मिल जायेंगें कई राह चलते,
ट्वीट भी होंगे खूब, मर्डर - 4, जिस्म - 5 के समाज सुधारक निर्माताओं की तरफ से |

यहाँ कोई माँ अपनी बेटी को समझा रही होगी,
वहां कोई माँ बेटे को जेल से छुड़ाने की फिराक में होगी |

एक माँ को होगी बेटी की शादी की चिंता,
और एक माँ बेटे को दहेज़ से तौलने की जुगत में होगी |

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ओहो भटक गया, आज तो महिला दिवस है,
आज तो महिला समानता का जश्न होना चाहिये |

पर क्या करूँ, संतोष जरा कम होता है,
एकदिवसीय कार्यक्रमों से थोड़ा डर लगता है |

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कैसे रुकें कन्या भ्रूण हत्याएं,
जब दादी को हो पोते की आस |

माता पिता भी सोंचें, लड़का करेगा पिंडदान,
ओ बेचारों, बुद्धि के मारों,
तुमने तो खुद ही कर लिया अपनी खुशियों का स्वेछादान |

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मन बहुत विचलित हो रहा है,
कहीं कोई गुड़िया कराह रही है |

ओ वीवीआइपीयो के महिला सम्मेलनों के सुरक्षा गार्ड,
उन दामनियों को बचा लो, बड़ी मेहरबानी होगी |

क्योंकि उन्हें बचाने न आयेंगें, एआईबी रोस्ट और अंध आधुनिकता के सिपह सलारदार,
न ही निकलेंगें वे सज्जन, संस्कृति को संकुचित कर जिन्होनें किया समाज का बंटाधार |



बुधवार, दिसंबर 03, 2014

भोपाल गैस त्रासदी

 
 दर्द नहीं कम होगा
 एक पक्षीय सिद्धांत आदर्शों से, 
 पिस रही है मानवता 
 आशंका के चक्रव्यूह में 
 न जाने कितने बरसों से। 

 सुविधा मानव की प्रवृत्ति
 मानव प्रकृति के बीच भित्ति,
 बुद्धि ह्रदय का अंतराल 
 असमन्यवता की मिसाल 
 पूंजी का ऐश्वर्य जाल,
 चरमोत्कर्ष ला दिया तुमने 
 सुविधा को दुविधा में डाल,
 नागासाकी हिरोशिमा 
 अब रच डाला है भोपाल, 
 अंधी दौड़ का परिणाम 
 भोपाल काल, भोपाल काल। 

 गम और आंसुओं के सैलाब में
 डूब गया भोपाल ताल, 
 मृत्यु सहम कर थरथरा गई 
 देख नर पिशाचों का हाल, 
 अभी - अभी सो रहा था जो
 एक नगर खुशहाल, 
 मानव के खूनी हाथों ने 
 लिख दी उसकी कथा - कराल। 

 श्वांस ने लिया श्वांस अनगिनत 
 न जाने तड़पे कितने,
 घुट - घुट कर मरे वहीँ 
 जितने थे उतने के उतने, 
 कीट नाशक ने कैसे जिन्दा दफनाया 
 मानव को कीटों जैसा, 
 पूंजीवाद ने डसा 
 अमरीका के वीटो जैसा, 
 वोट बैंकरों ने डसा अपनी वोटों को, 
 दलालों ने भरा अपनी कोटों को,
 लेकिन, 
 उन बेचारों का क्या दोष 
 जिन्होंने भोगा इसको, 
 यह कोई प्राकृतिक प्रकोप नहीं, 
 मानव सी आकृतियों नें 
 भेजा था परलोक उनको।   

 संसार की अनुपम कृति को 
 क्या भष्मासुर बनना है, 
 अपने ही उपकरणों से 
 क्या भस्म धरा को करना है।     


                                 - देवेन्द्र कुमार द्विवेदी

                                   ( पिताजी द्वारा तीस वर्ष पूर्व लिखित )

  इस भीषण दुर्घटना में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि एवं प्रभावित लोगों के प्रति हार्दिक संवेदना। 

  एंडरसन तो बिन सजा पाये ही मर गया पर जीवित दोषियों पर कड़ी कार्यवाही होनी चाहिए और प्रभावितों के पुनर्वास की बेहतर व्यवस्था   की जाने चाहिए।  
 

बुधवार, जुलाई 31, 2013

साहित्य के रत्न - मुंशी प्रेमचंद

                 आज 31 जुलाई है, महीने का अंतिम दिन, नौकरीपेशा लोगों के लिए यह दिन पगार के इंतज़ार का अंतिम दिन होता है, तो वहीँ बच्चों के लिए विद्यालय में मासिक टेस्ट की चिंता का अंतिम दिन।  परन्तु साहित्य प्रेमियों के लिए यह दिन विशेष उत्साह का होता है क्योंकि आज वैश्विक स्तर के दो विशिष्ट उपन्यासकारों का जन्मदिवस है, प्रथम  उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंदजी का जबकि दूसरा हैरी पॉटर  की रचनाकार जे.के. रोलिंग का।

                  मुंशी प्रेमचंद के नाम से मेरा प्रथम परिचय कक्षा पांच में हुआ था जब हिंदी के पाठ्यक्रम में शामिल 'ईदगाह' कहानी में हामिद के चिमटा खरीदने के उद्यम ने मेरे बालमन को बहुत प्रभावित किया था। उसके बाद तो उनकी अनेक कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला है,  उनकी लेखनी से कोई भी तात्कालीन  भावनात्मक एवं सामाजिक मुद्दा अछूता नहीं रहा है।     

               आज से 133 वर्ष पूर्व अर्थात 31 जुलाई 1880 को एक साधन सुविधा विपन्न घर में जन्मे मुंशी जी का अधिकाँश जीवनकाल आर्थिक दुरावस्था में ही बीता, बाल्यकाल में ही माता स्वर्ग सिधार गईं, पिता के दूसरा विवाह करने के बाद आईं विमाता ने उन्हें वह स्नेह न दिया जिसकी उन्हें आवश्यकता थी। शिक्षा प्राप्त करने हेतु वह अपने ग्राम लमही से कई किलोमीटर दूर बनारस पैदल नंगे पांव ही जाया करते थे पर कुछ समय बाद पिता की भी मृत्यु हो जाने पर उनपर घर के भरण पोषण की भी जिम्मेदारी आन पड़ी। उसी समय 15 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह भी कर दिया गया , परन्तु पत्नी के गुणवती न होने के कारण यह शादी कुछ वर्षों बाद टूट गयी। इसके बाद उन्होंने अपने सिद्धांतों के अनुरूप एक बाल विधवा से विवाह कर लिया। 133 वर्ष पूर्व अर्थात 31 जुलाई 1880 को एक साधन सुविधा विपन्न घर में जन्मे मुंशी जी का अधिकाँश जीवनकाल आर्थिक दुरावस्था में ही बीता, बाल्यकाल में ही माता स्वर्ग सिधार गईं, पिता के दूसरा विवाह करने के बाद आईं विमाता ने उन्हें वह स्नेह न दिया जिसकी उन्हें आवश्यकता थी। शिक्षा प्राप्त करने हेतु वह अपने ग्राम लमही से कई किलोमीटर दूर बनारस पैदल नंगे पांव ही जाया करते थे पर कुछ समय बाद पिता की भी मृत्यु हो जाने पर उनपर घर के भरण पोषण की भी जिम्मेदारी आन पड़ी। उसी समय 15 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह भी कर दिया गया , परन्तु पत्नी के गुणवती न होने के कारण यह शादी कुछ वर्षों बाद टूट गयी। इसके बाद उन्होंने अपने सिद्धांतों के अनुरूप एक बाल विधवा से विवाह कर लिया। 
             मुंशी प्रेमचंद जी का रचनाकर्म समाज के उत्थान हेतु समर्पित है, अपने जीवनकाल में उन्होंने 300 से अधिक कहानियाँ लिखी, अनेक उपन्यास लिखे, निबन्ध, पत्र आदि की संख्या तो हजारों में रही है। 

             अपने समस्त रचनाकर्म में मुंशी जी का जोर रूढ़ीवाद का विरोध, अंधविश्वास के उल्मूलन, शोषितों को शोषकों से बचाने का प्रयास एवं समाज को एक नयी दिशा दिखने का रहा है। उनकी एक कहानी 'मृत्युभोज'  समाज में व्याप्त उस परंपरा के स्याह पक्ष को सामने लाती हैं जिसमें एक गरीब परिवार के व्यक्ति  की मृत्यु होने पर जिस वक्त उस परिवार को समाज से सहायता की आवश्यकता होती है तब उसको पंडितों एवं समाज के ही लोगों को भोजन कराना पड़ता है, भले ही घर के ही बच्चे भूख से बिलख जाएँ। 

            इसी प्रकार मुझे एक और कहानी याद आ रही है 'बौड़म' ,इस कहानी का मुख्य पात्र एक संपन्न परिवार में जन्म लेता है पर वह बाहरी आडम्बरों से अछूता रहकर समाज का भला करना चाहता है, लेकिन लोग उसे बौड़म अर्थात पागल कहकर पुकारते हैं।  आज भी निःस्वार्थ भाव से सेवा करने के इच्छुक व्यक्ति को समाज अस्वीकार कर देता है।  आज भ्रष्टाचार एवं दहेज़ प्रथा सामाजिक स्वीकार्यता प्राप्त कर चुके है, यूँ तो बाहरी तौर पर लोग इनका विरोध करते हैं लेकिन अंदरखाने में इनसे लाभान्वित होने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते हैं। जन्म लेता है पर वह बाहरी आडम्बरों से अछूता रहकर समाज का भला करना चाहता है, लेकिन लोग उसे बौड़म अर्थात पागल कहकर पुकारते हैं।  आज भी निःस्वार्थ भाव से सेवा करने के इच्छुक व्यक्ति को समाज अस्वीकार कर देता है।  आज भ्रष्टाचार एवं दहेज़ प्रथा सामाजिक स्वीकार्यता प्राप्त कर चुके है, यूँ तो बाहरी तौर पर लोग इनका विरोध करते हैं लेकिन अंदरखाने में इनसे लाभान्वित होने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते हैं। 

          वैसे तो अभी भी मुंशी जी की कई कहानियाँ मन में विचरण कर रही हैं परन्तु अब कंप्यूटर की कुंजियों को आराम करने का भी वक्त देना चाहिए।  

                                            मुंशी प्रेमचंद जी को हार्दिक नमन. 

शुक्रवार, मई 18, 2012

राष्ट्रपति चुनाव की जोड़ -तोड़



पी.ए. संगमा जी ने क्या खूब उठाया आदिवासी राष्ट्रपति का मुद्दा,
उम्मीदवारी-ए-राष्ट्रपति जताने बिसर गए पद की गरिमा का मुखड़ा |

मुलायम ने भी कह दिया कि मुसलमान को राष्ट्रपति बनाओ,
और बिना रिश्वत के हमारा समर्थन मुफ्त में ले जाओ |

मुलायम की तो यही चाह है कि मिल सकें वोट उन क्षुद्र जीवों के,
जो तुक्ष्य मानें योग्यता को और दें वोट धर्म और सम्प्रदाय को |

बीजेपी - कांग्रेस ने साध रखी है चुप्पी अभी अपनी इच्छा से,
पर नहीं हैं निर्मल वे भी इस गन्दी और ओछी मानसिकता से |

देश की प्रबुद्ध जनता कह रही है यह बात चीख - चीख कर,
हमको चाहिए अपने  देश के लिए एक योग्य राष्ट्रपति,
 न कि मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे आदि का धर्माधिपति ||


                                                                       - देवांशु द्विवेदी 

शनिवार, नवंबर 26, 2011

आतंकवादी हमलों का कारण भारत सरकार का रवैया

      आज मुंबई हमले की त्रासदी हुए तीन वर्ष हो गए हैं, इस हमले में मारे गए व्यक्तियों  को अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि एवं इस हमले में घायल एवं प्रभावित हुए लोगों को सहानुभूति |
        जिस वक्त हमला हुआ था उस समय मैं नागपुर में एक होटल के कमरे में यात्रा की थकान उतार रहा था कि तभी टेलीविजन से  हमले की खबर मिली |  चूँकि उस दिन पहली बार मैंने महाराष्ट्र में प्रवेश किया था इसलिए नागपुर और मुंबई के बीच लम्बी  दूरी होने के बावजूद ऐसा लग रहा था जैसे कि मैं घटना स्थल में ही मौजूद हूँ | मेरे लिए तो महाराष्ट्र में ठहराव सामान्य ही रहा पर बहुत से देशी एवं विदेशी लोगों के लिए वह ठहराव जिंदगी का ठहराव साबित हो गया | 
       पर हमले के तीन साल बीत जाने पर हमें इस दौरान हुए घटनाक्रमों के आधार पर यह सोचने कि आवश्यकता है कि इन हमलों का जिम्मेदार कौन है, आम भारतीय तथा सरकार मानती है कि इन हमलों का जिम्मेदार पाकिस्तान है जो कि अपनी भूमि पर आतंकवादियों को संरक्षण दे रहा है तथा आर्थिक एवं अन्य प्रकार की सहायता के द्वारा भारत पर आतंकवादी हमले करने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है | अभी तक मेरा मानना भी यही था लेकिन वास्तविकता यह है कि इन हमलों के लिए जिम्मेदार भारत सरकार है क्योकि जब एक आतंकवादी समूह हमारी विधायिका जहाँ पर सिद्धांततः देश के नफे नुकसान से सम्बंधित बातों पर विचार करके देश के हित के लिए कानून बनाये जाते हैं अर्थात संसद पर हमला करता है और हमारे बहादुर  सुरक्षाकर्मी इस हमले को नाकाम करते हैं, हमारी जांच एजेंसियां मुख्य अपराधी को पकड़ कर अदालत में पेश करती है, हमारे न्यायालय एक नहीं बल्कि कई बार अपराधी को मृत्युदंड सुनाते हैं, परन्तु हमारी सरकार अपराधी द्वारा राष्ट्रपति को दी गयी दया याचिका को सालों तक लटकाकर मुख्य अपराधी को जेल में आराम से जीवन यापन करने कि सहूलियत प्रदान करती हैं |
      इसी प्रकार देश की आर्थिक राजधानी में आतंकवादी हमला होता है, सैकड़ों लोग मारे जाते हैं, इस आतंकी वारदात को अंजाम देने वाले नौ आतंकी भी मारे जाते है लेकिन एक बहुत ही सौभाग्यशाली आतंकवादी सुरक्षा एजेंसियों द्वारा जिन्दा ही पकड़ लिया जाता है, उस आतंकवादी को मीडिया के कैमरों द्वारा पूरा भारत ही नहीं पूरा विश्व आतंकी वारदात करते हुए देखता है परन्तु हमारे यहाँ न्यायालयी व्यवस्था का पूरा सम्मान किया जाता है इसीलिए हमारी सरकार अपराधी को देश के खर्चे से वकील करने कि सुविधा देती है और अब जबकि  विशेष न्यायालय और फिर उच्च न्यायालय ने चीख - चीख कर कह दिया है कि कसाब को मृत्युदंड दिया जाता है तब तक में सरकार ने अरबों रुपये कसाब की सुरक्षा और अन्य मदों में खर्च कर दिए हैं, और अब कसाब की याचिका सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है | और लम्बे समय तक सुनवाई करने के बाद सर्वोच्च न्यायालय भी कसाब की फांसी की सजा बरकरार रखेगा और फिर कसाब की दया याचिका ठुमकते - ठुमकते राष्ट्रपति के पास पहुँच जाएगी और उसके बाद कसाब भी अफजल गुरु की तरह आराम से जेल में जिंदगी गुजारेगा |  
        भारत सालों से रोना रो रहा है कि पाकिस्तान आतंकवादियों को संरक्षण दे रहा है, मुंबई हमलों के मुख्य आरोपियों पर कार्यवाही नहीं कर रहा है, लेकिन जब हम  स्वयं आतंकियों को पकड़ने के बाद उनको सजा नहीं दे सकते तो हम किसी दूसरे देश वो भी पाकिस्तान से ऐसी उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि वो आतंकवादियों को पकड़ेगा, और मैं तो चाहता हूँ की पाकिस्तान किसी आतंकवादी को पकडे तो बहुत अच्छी बात है परन्तु वह किसी भी आतंकवादी को भारत को प्रत्यर्पित न करे अन्यथा अफजल और कसाब जैसे और भी आतंकी जनता के धन से जेल में खूब मजे लूटेंगे | 
       इस स्थिति में मैं भारत में आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान, आतंकवादी संगठनों एवं उनके समर्थकों के स्थान पर स्वयं भारत को जिम्मेदार मानता हूँ, चूँकि हम लोकतांत्रिक देश के निवासी है और अप्रत्यक्ष रूप से देश की जनता ही अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से देश को चलाती है इसलिए इन हमलों के जिम्मेदार हम भारतवासी ही है यदि हम अर्थात पूरे देश की जनता आतंकियों के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्यवाही करने की ठान लें तो कोई भी राजनीतिक दल हमारी राय के खिलाफ नहीं जा सकता | हम विकासशील  देश होने के कारण ज्यादातर मामलों में अमेरिका एवं अन्य विकसित देशों की नीतियों को बिना कुछ सोचे समझे अपने देश में लागू करते हैं काश कि हम आतंकवाद के मामले में भी अमेरिकी नीति से कुछ सबक सीखते | जब तक हम आतंकियों के खिलाफ कड़ा रूख अख्तियार नहीं करेंगे तब तक हम आतंकी संगठनों को आतंकी वारदात करने के लिए प्रेरणास्रोत ही बने रहेंगे |

शुक्रवार, जून 10, 2011

चर्बीयुक्त कारतूस और बाबा की गोपनीय चिट्ठी



     इस सदी का दूसरा दशक अपने साथ विभिन्न देशों में लम्बे समय से अपरिवर्तित सत्ता को बदलने तथा भ्रष्टाचार एवं अन्य सामाजिक बुराइयों को दूर करने की इच्छा शक्ति लेकर आया है | ट्यूनीशिया से शुरू हुई क्रांति की आग ने मिस्र, यमन, लीबिया आदि देशों में जनसामान्य की सत्ता परिवर्तन की चाह को साहस द्वारा पूरा करने की प्रेरणा दी | इनमें से कुछ देशों में ये क्रांतियाँ स्थानीय एवं अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों से सफल हुई वहीँ कुछ राष्ट्रप्रमुखों ने दमन की नीति चलते हुए अभी तक सत्ता नहीं छोड़ी है |
          अपने भारत देश में भी वर्तमान समय की सर्वप्रमुख समस्या भ्रष्टाचार जोकि हमारे  देश को टेबल के नीचे से एवं लिफाफों के के अन्दर से महात्मा गाँधी के मुस्कुराते हुए चहरे के साथ खोखला कर रही है, के खिलाफ अप्रैल माह में अन्ना हजारे जी के नेतृत्व में सरकार के समक्ष लोकपाल विधेयक के प्रस्ताव के  लिए आन्दोलन किया गया|  सरकार द्वारा अन्ना की सभी प्रमुख मांगे मान लिए जाने के बाद यह अनुभव हो रहा था की  इस बीमारी का प्राथमिक इलाज सही हो रहा है | परन्तु अब तो अन्ना ही यह कहने लगे हैं के सरकार ने हमारे साथ धोखा किया  है | 
           अब इसके बाद जून में बाबा रामदेव अनशन पर बैठते हैं | वह व्यक्ति जिसने कई सालों से योग तथा प्राचीन भारतीय चिकित्सा प्रणाली आयुर्वेद  के प्रचार - प्रसार के  द्वारा लाखों लोगों को स्वास्थ्य लाभ कराया है वह अब विदेशों से काले धन को देश में लाकर उसे राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करने सहित अन्य कई राष्ट्रहित की मांगों को मनवाने के लिए रामलीला मैदान में अपने समर्थकों समेत अनशन पर बैठता है |
          केंद्र सरकार बाबा रामदेव  के प्रभाव और उनके समर्थकों की बड़ी संख्या को देखते हुए और अन्ना हजारे के अनशन के प्रभाव से सीख लेते हुए अनशन शुरू होने के एक दिन पहले बाबा रामदेव को मनाने के लिए अपने चतुर एवं कुटिल  मंत्रियों को उनके पास भेजती है, बैठक के बाद यह बात सामने आती है की अधिकतर  मुद्दों पर सहमति बन गयी है परन्तु सभी बातों को न माने जाने के कारण बाबा रामदेव अनशन करेंगे | अगले दिन पुनः बाबा और केन्द्रीय मंत्रियों में बातचीत होती है और शाम तक बाबा की सभी बातें मांग लिए जाने की सूचना प्राप्त होती है लेकिन साथ ही साथ बड़े ही नाटकीय रूप से एक चिट्ठी प्रकट होती है  जिसमें बाबा रामदेव द्वारा अनशन शुरू करने के  एक दिन पहले ही 2-3 दिन के के अन्दर ही आन्दोलन ख़त्म करने की घोषणा सरकार के समक्ष की जाती है |
      पिछले एक हफ्ते से चल रहे सभी नाटकीय एवं नकारात्मक घटनाक्रम का मूल यह चिट्ठी ही है | हांलाकि यह बात तो निश्चित है बाबा रामदेव अपनी बाहरी वाणी के द्वारा जितने ईमानदार, एवं आदर्श व्यक्तित्व होने की बात करते हैं अपनी मन की वाणी में वे वैसे नहीं है तभी तो उनके खिलाफ बहुत सी बातें उठती है परंतु फिर भी उन्होनें एक अच्छे कार्य के लिए अपने कदम आगे बढ़ाए हैं | ऐसे में बाबा के साथ केंद्र सरकार का ऐसा बर्ताव निःसन्देह अंग्रेज़ जमाने की याद दिलाता है | जहां सिब्बल जैसे अनुभवी एवं  कुटिल मंत्रियों का समूह हो वहाँ बाबा का उनके बहकावे में आकर चिट्ठी दे देना कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं है | लेकिन इस चिट्ठी की घटना ने इस संगठित आन्दोलन को पूरी तरह से बिखेर दिया है, इतिहास में ऐसी अनेक संस्मरण हैं जब किसी एक घटना ने पूरे  आन्दोलन को नाकाम कर दिया हो | भारतीय इतिहास में 1857 की क्रांति को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नाम से जाना जाता है, इस क्रांति का तत्कालीन कारण चर्बीयुक्त कारतूस थे जिसके कारण सैनिकों में असंतोष हो जाने के कारण क्रांति नियत समय के पहले ही शुरू हो गयी | क्रांति का नियत समय से पहले शुरू होना भी क्रांति के असफल होने के प्रमुख कारणों में से एक था | इसी प्रकार भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुई लड़ाई भी चिट्ठी प्रकरण के बाद से दिशाहीन हो गयी है |
         बाबा रामदेव एवं सरकार की मंशा क्या है और कौन कितना दोषी है, इन विचारों को छोड़ते हुए हमें ये सोचना चाहिए 4-5 तारीख की दरम्यानी रात को जो भी हुआ वह कितना सही था | यदि बाबा ने सरकार के साथ धोखा किया था तो सरकार को तार्किक बिन्दुओं को आधार बना कर बाबा पर कार्यवाही करनी चाहिए थी | परन्तु सरकार ने बाबा का समर्थन करने वाले हजारों लोगों को बेरहमी के साथ रामलीला मैदान के पंडाल  से बाहर करवा दिया | वे न तो सरकार की चालाकी समझते थे और न ही बाबा रामदेव की चालाकी को, वे तो मात्र इस आशा में अनशन में बैठे थे की इन मांगों को मान लिए जाने उनका जीवन बेहतर होगा और हम नई पीढ़ी को एक अच्छा भविष्य देकर जायेंगे | बाबा रामदेव के समर्थक देश के अलग - अलग भागों से आये थे इसलिए ऐसे बहुत कम खुशनसीब लोग ही रहे होंगे जिनका घनिष्ठ परिचित  दिल्ली में रहा हो और वे वहां आसरा पा सके हों |ऐसे में आंसू गोले और डंडों की मार झेलने के बाद निश्चित ही वह रात उनके लिए बहुत ही भयावह  रही होगी | 
       सरकार और दिल्ली पुलिस इस मामले में बहुत ही बचकाने से तर्क दे रही है | इस घटना के बाद सरकार के सभी मंत्री रामदेव बाबा को गलत साबित करने में जुट गए हैं | लेकिन सर्वाधिक चिंतनीय बात तो यह है की सात दिनों से अनशन पर बैठे बाबा के गिरते स्वास्थ्य के बावजूद सरकार आँख मूंदे बैठी है |